युधिष्ठिर जुए में अपना सर्वस्व हार गए थे| छलपूर्वक,
शकुनि ने उनका समस्त वैभव जीत लिया था| अपने भाइयों को, अपने को और रानी द्रौपदी को भी बारी-बारी से युधिष्ठिर ने दांव पर रखा| जुआरी की दुराशा उसे बुरी
तरह ठगती रहती है - 'कदाचित अबकी बार सफलता मिले|' किंतु युधिष्ठिर प्रत्येक दांव हारते गए| जब वे द्रौपदी को भी हार गए, तब दुर्योधन ने अपने छोटे भाई दु:शासन के द्वारा द्रौपदी को उस भरी सभा में पकड़ मंगवाया| दुरात्मा दु:शासन पांचाली के केश पकड़कर घसीटता हुआ उन्हें सभा में ले आया| द्रौपदी रजस्वला थे और एक ही वस्त्र पहने थी| विपत्ति यहीं समाप्त नहीं हुई| दुर्योधन ने अपनी जांघ खोलकर दिखाते हुए कहा, "दु:शासन ! इस कौरवों की दासी को नंगा करके यहां बैठादो
|"सभा भरी थी| वहां धृतराष्ट्र थे, पितामह थे, द्रोणाचार्य थे| सैकड़ों सभासद थे| वयोवृद्ध विद्वान थे, शूरवीर थे और सम्मानित पुरुष भी थे| ऐसे लोगों के मध्य पांडवों की वह महारानी, जिसके केश राजसूय के अवभूथ स्नान के समय सिंचित हुए थे, जो कुछ सप्ताह पूर्व ही चक्रवर्ती सम्राट के साथ साम्राज्ञी के रूप में समस्त नरेशों द्वारा वंदित हुई थी, रजस्वला होने की स्थिति में केश पकड़कर घसीट लाई गई और अब उसे नग्न करने का आदेश दिया
जा रहा है|होने को वहां विदुर भी थे, किंतु उनकी बात कौन सुनता? द्रौपदी ने अनेक बार पूछा, "युधिष्ठिर जब अपने-आपको हार चुके थे, तब उन्होंने मुझे दांव पर लगाया था, अत: धर्मत: मैं हारी गई या नहीं?" किंतु भीष्म जैसे धर्मज्ञों ने भी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया| जिसकीभुजाओं में दस हजार हाथियों का बल था, उस दुरात्मादु:शासन ने द्रौपदी की साड़ी पकड़ ली|
"मेरे त्रिभुवन विख्यात शूरवीर पति !" द्रौपदी व्याकुल होकर इधर-उधर देख रही थी कि कोई उसकी रक्षा करेगा, किंतु पांडवों ने लज्जा तथा शोक के कारण मुख दूसरी ओर कर लिया था|
आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, धर्मात्मा कर्ण... द्रौपदी ने देखा कि उसका कोई सहायक नहीं| कर्ण तो उलटे दु:शासन को प्रोत्साहित कर रहा है और भीम, द्रोण आदि बड़े-बड़े धर्मात्माओं के मुख दुर्योधन द्वारा अपमानित होने की आशंका से बंद हैं और उनके मस्तक नीचे झुके हैं|
एक वस्त्रा अबला नारी - उसकी एकमात्र साड़ी को दु:शासन अपनी बल बलभरी मोटी भुजाओं के बल से झटके से खींच रहा है| कितने क्षण द्रौपदी साड़ी को पकडे रह सकेगी? कोई नहीं-कोई नहीं, उसकी सहायता करने वाला| उसके नेत्रों से झड़ी लग गई, दोनों हाथ साड़ी छोड़कर ऊपर उठ गए| उसे भूल गई राजसभा, भूल गई साड़ी, भूल गया शरीर| वह कातर स्वर में पुकार उठी, "श्रीकृष्ण ! द्वारकानाथ, देव-देव ! गोपीजन प्रिय ! जगन्नाथ ! इन दुष्ट कौरवों के सागर में मैं डूब रही हूं, दयामय ! मेरा उद्धार करो|"
द्रौपदी पुकारने लगी - पुकारती रही उस आर्तिनाशन असहाय के सहायक करुणार्णव को| उसे पता नहीं था कि क्या हुआ या हो रहा है| सभा में कोलाहल होने लगा| लोग आश्चर्यचकित रह गए| दु:शासन पूरी शक्ति से द्रौपदी की साड़ी खींच रहा था| वह हांफने लगा था, थक गईं थीं दस सहस्त्र हाथियों का बल रखने वाली उसकी भुजाएं| द्रौपदी की साड़ी से रंग-बिरंगे वस्त्रों का अंबार निकलता जा रहा था| वह दस हाथ की साड़ी पांचाली के शरीर से तनिक भी हट नहीं रही थी| वह तो अनंत हो चुकी थी| दयामय द्वारकानाथ रजस्वला नारी के उस अपवित्र वस्त्र में ही प्रविष्ट हो गए थे| आज उन्होंने वस्त्रावतार धारण कर लिया था और अब उनके अनंता का ओर-छोर कोई कैसे पा सकता था?
"विदुर ! यह कोलाहल कैसा है?" अंधे राजा धृतराष्ट्र ने घबराकर पूछा|
महात्मा विदुर ने बताया, "दु:शासन द्रौपदी की साड़ी खींचते-खींचते थक चुका है| वस्त्रों का ढेर लग गया है| आश्चर्यचकित सभासदों का यह कोलाहल है| साथ ही आपकी यज्ञशाल में श्रृंगाल घुस आए हैं और रो रहे हैं| दूसरे भी बहुत-से अपशकुन हो रहे हैं| द्रौपदी सर्वेश्वर श्रीकृष्ण को पुकारने में तन्मय हो रही है| उन सर्वसमर्थ ने अभी तो उनकी साड़ी बढ़ा दी है, किंतु यदि शीघ्र पांचाली को प्रसन्न नहीं करते तो श्रीकृष्ण का महाचक्र कब प्रकट होकर एक क्षण में आपके पुत्रों को नष्ट कर देगा - यह कोई नहीं कह सकता| आपके सभासद तो भय-व्याकुल होकर कोलाहल करते हुए दुर्योधन की जो निंदा कर रहे हैं, उसे आप सुन ही रहे हैं|"
धृतराष्ट्र को भय लगा| उन्होंने दुर्योधन का फटकारा| दु:शासन ने द्रौपदी की साड़ी छोड़ दी और चुपचाप अपने आसन पर बैठ गया| वह समझे या न समझे, पांडव तथा भीस्म जैसे भगवद्भक्तों को यह समझना नहीं था कि द्रौपदी की लज्जा-रक्षा कैसे हुई?
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