बहुत समय पहले की बात है. भारत के सुदूर दक्षिण में एक छोटा सा राज्य स्थित था. राजा द्वारा राज्य का संचालन शांतिपूर्ण रीति से किया जा रहा था.
एक दिन अचानक उसे ख़बर मिली कि एक बड़े राज्य की सेना की एक बड़ी टुकड़ी उसके राज्य पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ रही है. वह घबरा गया, क्योंकि उसके पास उतना सैन्य बल नहीं था, जो उतनी बड़ी सेना का सामना कर सके.
उसने मंत्रणा हेतु सेनापति को बुलाया. सेनापति ने पहले ही हाथ खड़े कर दिए. वह बोला, “महाराज! इस युद्ध में हमारी हार निश्चित है. इतनी बड़ी सेना के सामने हमारी सेना टिक नहीं पायेगी. इसलिए इस युद्ध को लड़ने का कोई औचित्य नहीं है. हमें अपने सैनिकों के प्राण गंवाने के बजाय पहले ही हार स्वीकार कर लेनी चाहिए.”
सेनापति की बात सुनकर राजा बहुत निराश हुआ. उसकी चिंता और बढ़ गई. वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे और क्या न करे? अपनी चिंता से छुटकारा पाने के लिए वह राज्य के संत के पास गया.
संत को उसने पूरी स्थिति से अवगत कराया और बताया कि सेनापति ने तो युद्ध के पहले ही हाथ खींच लिए हैं.
ये सुनकर संत बोले, “राजन! ऐसे सेनापति को तो तुरंत उसके पद से हटाकर कारागृह में डाल देना चाहिए. ऐसा सेनापति जो बना लड़े हार मान रहा है, उसे सेना का नेतृत्व करने का कोई अधिकार नहीं है.”
“किंतु गुरुवर, यदि मैंने उसे कारागृह में डाल दिया, तो सेना का नेतृत्व कौन करेगा.” राजा चिंतित होकर बोला.
“राजन! तुम्हारी सेना का नेतृत्व मैं करूंगा.” संत बोले.
राजा सोच में पड़ गया कि संत युद्ध कैसे लड़ेंगे? उन्होंने तो कभी कोई युद्ध नहीं किया है. किंतु, कोई विकल्प न देख उसने संत की बात मान ली और उन्हें अपनी सेना का सेनापति बना दिया.
सेनापति बनने के बाद संत ने सेना की कमान संभाल ली और सेना के साथ युद्ध के लिए कूच कर दिया. रास्ते में एक मंदिर पड़ा. मंदिर के सामने संत ने सेना को रोका और सैनिकों से बोले, “यहाँ कुछ देर रुको. मैं मंदिर में जाकर ईश्वर से पूछकर आता हूँ कि हमें युद्ध में विजय प्राप्त होगी या नहीं?”
ये सुन सैनिकों ने चकित होकर पूछा, “मंदिर में तो भगवान की पत्थर की मूर्ति है. वह कैसे बोलेगी?”
इस पर सेना की कमान संभाल रहे संत ने कहा, “मैंने अपनी सारी उम्र दैवीय शक्तियों से वार्तालाप किया है. इसलिए मैं ईश्वर से बात कर लूंगा? तुम लो यहीं रूककर मेरी प्रतीक्षा करो.”
यह कहकर संत मंदिर में चले गए. कुछ देर बार जब वे वापस लौटे, तो सैनिकों ने पूछा, “ईश्वर ने क्या कहा?”
संत ने उत्तर दिया, “ईश्वर ने कहा कि यदि रात में इस मंदिर में प्रकाश दिखाई पड़े, तो हमारी विजय निश्चित है.”
पूरी सेना रात होने की प्रतीक्षा करने लगी. रात हुई, तो मंदिर में उन्हें प्रकाश दिखाई पड़ा. ये देख सेना ख़ुशी से झूम उठी. उन्हें विश्वास हो गया कि अब वे युद्ध जीत लेंगे. उनका मनोबल बढ़ गया और वे जीत के मंसूबे से युद्ध के मैदान में पहुँचे.
युद्ध २१ दिन चला. सैनिक जी-जान से लड़े. फलस्वरूप उनकी विजय हुई. विजयी सेना के वापस आते समय फिर वही मंदिर पड़ा. तब सैनिकों ने संत से कहा कि ईश्वर के कारण हमारी विजय हुई है. आप जाकर उन्हें धन्यवाद दे आयें.
संत ने उतर दिया, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं है.”
यह सुन सैनिक कहने लगे, “आप कितने कृतघ्न हैं. जिस ईश्वर ने मंदिर में रौशनी कर हमें जीत दिलाई, आप उनका धन्यवाद भी नहीं कर रहे.”
तब संत ने उन्हें बताया, “उस रात मंदिर से आने वाली रौशनी एक दिए की थी और वह दिया मैं वहाँ जलाकर आया था. दिन में तो वो रौशनी दिखाई नहीं पड़ी. किंतु रात होते ही दिखाई देने लगी. दिए की रौशनी देखकर तुम सबने मेरी बात पर विश्वास कर लिया कि युद्ध में विजय हमारी होगी. इस तरह तुम सबका मनोबल बढ़ गया और तुम जीत के विश्वास के साथ युद्ध के मैदान में गए और असंभव लगने वाली विजय तुमने प्राप्त की.”
सीख
१. ख़ुद पर विश्वास रखें और परिश्रम करते रहें. विश्वास की विजय होगी.
२. हमारी सोच ही आगे चलकर वास्तविकता का रूप लेती है. इसलिए अपनी सोच पर ध्यान दें. सदा सकारात्मक सोचें, ताकि सकारात्मक परिणाम मिले.
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